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जब भी किसी काम को करने का इरादा करो, लिखने या बोलने का इरादा करो, तो पहले हज़ार बार, सोचो , उसके नतीजे के बारे में. इंसान की कुछ परेशानियाँ, उसके अपने इख़्तियार से बाहर होती हैं जैसे सैलाब व तूफ़ान का आना, वग़ैरा । लेकिन इंसानी समाज की कुछ परेशानियाँ ऐसी हैं कि जो ख़ुद इंसान के गलत फैसलों या जल्दबाजी में लिए फैसलों से जन्म लेती हैं।
अक्सर इंसान अपनी जवानी के दिनों में, ग़लत लोगों से दोस्ती कर लिया करता है और बाद में सारी उमर पछताता रहता है. कुरआन के सूरा ए फ़ुरक़ान आयत न. 28 में कहा गया है कि ऐसा इंसान यही कहता है “वाय हो मुझ पर, काश फ़लाँ शख़्स को मैंने अपना दोस्त न बनाया होता।”
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि : “वाय हो उस इंसान पर जो बग़ैर सोचे समझे कोई जुमला अपनी ज़बान पर लाये।”
इससे यह साबित होता है कि हर इंसान की यह ज़िम्मेदारी है कि वह जो बात भी कहना चाहे, कहने से पहले उस पर ग़ौर करे और कोई काम करना हो ओ करने के पहले उसके ग़ौर ओ फ़िक्र करे । इस्लाम, इंसानों को तमाम कामों में ग़ौर व ख़ोज़ करने की नसीहत करता है।
बहुत मशहूर रिवायत है की अक़्लमंद की ज़बान उसके दिल के पीछे होती है और बेवकूफ का दिल उसकी ज़बान के पीछे होता है।
हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि छोटी चीज़, छोटी तो होती है लेकिन उनका असर अक्सर बड़ा और बहुत मोहकम होता है।
सिगरेट की एक चिंगारी एक बहुत बड़े गोदाम या शहर को जलाकर खाक कर सकती है।
एक छोटा सा कीटाणु इंसानों की सेहत व सलामती को ख़तरे में डाल सकता है।
किसी बाँध में पैदा होने वाली एक छोटी सी दरार, उस बाँध के किनारे बसे शहर को वीरान करने के लिए काफी हुआ करती है.
एक छोटा सा जुमला या इबारत दो बस्तियों के लोगों को एकदूसरे का जानी दुश्मन बना सकती है।
इसी तरह हवस से भरी एक निगाह या मुस्कुराहट इंसान के ईमान की दौलत को बर्बादकर सकती है।
ज़ालिम के लिए यतीम की आँख से गिरने वाला एक आँसू या दर्दमंद की एक आह उसकी सात नस्लों को बर्बाद कर सकती है।
एक लम्हे का तकब्बुर इंसान के मुस्तक़बिल को बर्बाद कर सकता है।
एक हिक़ारत भरी निगाह या तौहीन आमेज़ इबारत या ज़िल्लत का बर्ताव किसी इंसान, जवान या बच्चे के मुस्तक़बिल को तारीक बना सकता है।
मैंने बहुत से ब्लोगेर्स देखे हैं, अखबार वाले देखे हैं, वोह किसी भी मुद्दे पे लिखते हुए यह नहीं सोंचते की इसके असरात क्या होंगे? कहीं नतीजे में,नफरत के बीज ना पैदा हो रहे हों ? कहीं बस्ती में, दंगा ओ फसाद ना हो जाए?
आज बाबरी मस्जिद या रामजन्म भूमि के मसले पे, जिसे देखिये हाथ में कलम लिए, अपने सही गलत, ख्यालातों को पेश कर रहा है, बगैर यह सोंचे की इसका नतीजा क्या होगा?
इसी तरह धार्मिक मुद्दों पे भी हर इंसान हाथ में कलम ले के खड़ा हो जाता है, कोई सुधारवादी, कोई आतंकवादी, कोई दूसरों, की धार्मिक किताबों में बुराई निकाल रहा है, तो कोई दूसरों के खुदा, नबी, भगवन, अवतार, देवी देवताओं, में कामिआं निकलने में मस्त है. यह क्या आवश्यक है , की दूसरे का कबूतर बिगाड़ के अपना उल्लू सीधा करो. क्या हर धार्मिक इंसान अपने अपने धर्म की नसीहतों को नहीं सुना सकता? क्या दूसरों के धर्म पे ऊँगली उठाना आवश्यक है?
हम में से जब भी कोई अपनी ज़िन्दगी के वरक़ पलटता है तो देखता है कि हमने किसी ना किसी मौक़े पर जल्दबाज़ी में ग़ौर व ख़ोज़ किये बग़ैर कोई ना कोई ऐसा काम ज़रूर किया है जिसके बारे में आज तक अफ़सोस है कि काश हमने उसे करने से पहले ग़ौर व ख़ोज़ किया होता !
संवेदनशील विषयों पे बोलने के पहले. लिखने के पहले यह अवश्य देख लें, इसका असर क्या क्या हो सकता है?
कहीं ऐसा ना हो की बाद में पछताना पड़े. काश हमने ऐसा ना लिखा होता, या काश हमने ऐसा ना कहा होता, जिस से लोगों में नफरत फैली , बेगुनाह की जान गयी, लोगों के ताल्लुकात एक दूसरे से ख़राब हुए. और आप की हालत देख दूसरे यह ना कह रहे हों “अब पछतावे होत का जब चिडिया चुग गयी खेत”
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